Jaun Elia Shayari




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ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं

ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

है वो जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दर-पेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुश्बू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं


– जौन एलिया



जॉन एलिया (14 दिसंबर 1931 – 9 नवंबर 2002)


जौन एक मुँहफट, बेबाक और बागी शायर थे। आप समझ लीजिए कि अगर आज की तारीख में वे ज़िंदा होते तो पाकिस्तान में शायद क़त्ल कर दिए जाते। आप जौन को जितना पढ़ेंगे उतना जौन खुलते आएँगे। कुछ दिन में आप इस जौन वाइरस से एडिक्टड हो जाएँगे और एक तिश्नगी आपका शिकार करने लगेगी। नए शायरों की ग़ज़लें भी अब मीर, मोमिन, ग़ालिब, फ़ैज़, ख़ुमार के आगोश से सिमटती हुई जौन एलिया की बारगाह में आ गई हैं। जौन के शेर कहने का अंदाज़ ऐसा है कि उसमें ड्रामा भी है, झुंझलाहट भी है, बने बनाए नियमों को तोड़ देने की जिद भी है और दर्शन भी है। हिंदुस्तान के अमरोहा में पैदा हुए और पाकिस्तान के कराची की मिट्टी में दफ़्न हुए जौन एलिया वह शायर हैं